Tuesday 25 March 2014

अब मुल्क की माटी रगड़कर धो ली है......



जिंदगी तू हमसे कितनो खेल खेली है.......
पर हमको तू मासूम लगती है ,और भोली है
क्यूकि हमही थे जो आजतक तुझको समझ बैठे
वरना कितनों ने खेली यहाँ खून की होली है
तू समझती थी कि तेरी मखमली सी  बांह पर
हमने बिछा  दी गरदने,.........  पुरुषत्व खाली है
पर तू नहीं समझी रगों बह रहे  रक्त्त को .......
इस रक्त्त ने पुरखों की जीती दौड़ पा ली है .......

मत समझ की हम भी तुझ पर मर मिटे है
तुझसे नहीं महफूज मेरे वतन की टोली है
तेरी जो छीटें आजतक मुझ पर पड़ी थी
अब मुल्क की माटी रगड़कर धो ली है

तूने बहुत कमजोर करके रख दिया है हुस्न से
इतिहास के पन्नो में कितना नाम खाली है
जब मुशकिलों से घिर रहा मेरा वतन मेरा चमन
मेरे लिए बेकार अब होली दीवाली है..................


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