वो यादें मेरे बचपन की अब कितनी अच्छी लगती हैं
वो दादी की उड़ती परियां अब कितनी सच्ची लगती हैं
जब धूल से लथपथ थके हुए हम खेल के घर को आते थे
माँ की गोदी में बैठ के जब हम खूब बताशे खाते थे
शाम को बैठ के दादी माँ जब चोर सिपाही कहती थी
मधुशूदन आते जाते थे और चाँद में परियां रहती थी
स्कूल को जाते भैया की जब पहली कॉपी फाड़ी थी
सीने से लगाकर भैया ने तब प्यार से थपकी मारी थी
बहनों ने हाथों में जब मेहंदी खूब रचाई थी
छिपकर भाभी के रंगों से हमने भी भरी कलाई थी
वो पापा के ट्रांजिस्टर के जब तर पुराने तोड़े थे
वो बचपन की दीवाली में जब खूब पटाखे फोड़े थे
जरा सी बात पर आँखे भिगोकर बैठ जाते थे
कहकर मेरा राजा बेटा पापा खूब मानते थे
वो बचपन के मीठे लड्डू जब मम्मी खूब बनती थी
वो बागों के मीठे अमियाँ जब दादी खूब खिलाती थी
वो रिश्तों की कच्ची पक्की बुनियाद पर खेला करते थे
वो बूढों के आदेशों को हम कैसे झेला करते थे
वो नासमझी के सुन्दर दिन कही फिर से लौट चले आते
आ जाती फिर प्यारी दादी और चोर सभी पकडे जाते
ajay singh
9792363733
Sunday 8 January 2012
Saturday 7 January 2012
सत्तावन की तलवारों से
सत्तावन की तलवारों से
मची ग़दर जब भारी थी
औरत बूढ़े बच्चे सब की
मिट जाने की तयारी थी
सबने आहुति दे दी थी
आई अब अपनी बारी थी
गोंडा वाले दीवानों को
माटी जाँ से भी प्यारी थी
घुटनों तक लम्बे हाथ लिए
जब राजा भी लड़ने आये
बच्चों से लेकर बूढों तक
कोई भी घर न रुक पाये
बीस हज़ार दीवानों ने
साथ कसम जो खाई थी
इधर उधर भागे गोरे
उन पर तो सामत आई थी
बांध कफ़न सर पे अपने
यहाँ खून से खेली होली थी
भारत की लाज बचने को
चल पड़ी आज फिर टोली थी
वो फज़त अली की गोली से
अंग्रेज कमिश्नर का मरना
फिर अपनी माटी की खातिर
वो अशरफ का जिन्दा जलना
घर घर जा करके राजा ने
हर मां से बेटे मांगे थे
उन बेटों के रणकौशल से
गोरे डर करके भागे थे
जब लमती में पलटनें सजी
तब राजा कहने आते है
गोंडा वाले हम है सपूत
माटी का मोल चुकाते है
हम उनमे से एक नहीं
जो अपने शीश झुकाते है
हम स्वाभिमान की रक्षा में
मारते है या मार जाते है
ढेमवा की मांद सुरंगों से
उन वीरों के हर अंगों से
आवाजें फिर से उफनायीं
चुप रहने तक लड़ने आई
फिर बरछी तीर कटारों से
उन वीरों की तलवारों से
खून की नदियाँ बाह निकलीं
उन बंदूकों की मारों से
जब गरजी सरयू पर तोपें
डर करके गोरे भाग चले
वीरों की घोर गर्जना से
बेचारे आगे नहीं मिले
आते गोरों की नावों पर
जब तोपों ने गर्मी उगली
जब वीरों की बंदूकों से
बस केवल मौतें ही निकली
वो बेलवा के बाईस हमले
वो लमती के खूनी किस्से
पूछो चर्दा की मिटटी से
वो वीर आज भी है मिलते
अपने में से ही कुछ भाई
गोरों से जाकर न मिलते
तो भारत माता के सपूत
अपनी जगहों से न हिलते
उस ग़दर की भीषण ज्वाला में
जिसने भी शंख बजाये थे
अपनी माटी के खातिर
जिसने भी शीश कटाए थे
आओ उनको हम नमन करें
जीना हमको सिखलाते हैं
वो हरदम जीने की खातिर
अमरों में नाम लिखते हैं
ajay singh
9792363733
मची ग़दर जब भारी थी
औरत बूढ़े बच्चे सब की
मिट जाने की तयारी थी
सबने आहुति दे दी थी
आई अब अपनी बारी थी
गोंडा वाले दीवानों को
माटी जाँ से भी प्यारी थी
घुटनों तक लम्बे हाथ लिए
जब राजा भी लड़ने आये
बच्चों से लेकर बूढों तक
कोई भी घर न रुक पाये
बीस हज़ार दीवानों ने
साथ कसम जो खाई थी
इधर उधर भागे गोरे
उन पर तो सामत आई थी
बांध कफ़न सर पे अपने
यहाँ खून से खेली होली थी
भारत की लाज बचने को
चल पड़ी आज फिर टोली थी
वो फज़त अली की गोली से
अंग्रेज कमिश्नर का मरना
फिर अपनी माटी की खातिर
वो अशरफ का जिन्दा जलना
घर घर जा करके राजा ने
हर मां से बेटे मांगे थे
उन बेटों के रणकौशल से
गोरे डर करके भागे थे
जब लमती में पलटनें सजी
तब राजा कहने आते है
गोंडा वाले हम है सपूत
माटी का मोल चुकाते है
हम उनमे से एक नहीं
जो अपने शीश झुकाते है
हम स्वाभिमान की रक्षा में
मारते है या मार जाते है
ढेमवा की मांद सुरंगों से
उन वीरों के हर अंगों से
आवाजें फिर से उफनायीं
चुप रहने तक लड़ने आई
फिर बरछी तीर कटारों से
उन वीरों की तलवारों से
खून की नदियाँ बाह निकलीं
उन बंदूकों की मारों से
जब गरजी सरयू पर तोपें
डर करके गोरे भाग चले
वीरों की घोर गर्जना से
बेचारे आगे नहीं मिले
आते गोरों की नावों पर
जब तोपों ने गर्मी उगली
जब वीरों की बंदूकों से
बस केवल मौतें ही निकली
वो बेलवा के बाईस हमले
वो लमती के खूनी किस्से
पूछो चर्दा की मिटटी से
वो वीर आज भी है मिलते
अपने में से ही कुछ भाई
गोरों से जाकर न मिलते
तो भारत माता के सपूत
अपनी जगहों से न हिलते
उस ग़दर की भीषण ज्वाला में
जिसने भी शंख बजाये थे
अपनी माटी के खातिर
जिसने भी शीश कटाए थे
आओ उनको हम नमन करें
जीना हमको सिखलाते हैं
वो हरदम जीने की खातिर
अमरों में नाम लिखते हैं
ajay singh
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